Mahakumbh Mela में स्नान करने से मिल जाती है सभी पापों से मुक्ति, जानिए समुन्द्र मंथन से जुड़ा रहस्य

जैसे की आप सभी जानते हैं की Mahakumbh Mela 13 January से 26 February तक Prayagraj में आयोजित किया जा रहा है और इसकी तैयारी जोरों शोरों से चल रही हैं। क्या आप जानते हैं Mahakumbh Mela हर 12 साल में ही क्यों आयोजित किया जाता है। चलिए आज हम बात करते है कुम्भ मेले के पीछे की पौराणिक कथा की।

MahakumbhMela दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक सम्मेलन है जिसे “धार्मिक तीर्थयात्रियों की दुनिया की सबसे बड़ी मंडली” के रूप में भी जाना जाता है. 

Mahakumbh Mela का पहला लिखित प्रमाण भागवत पुराण में उल्लिखित है. कुंभ मेले का एक अन्य लिखित प्रमाण चीनी यात्री ह्वेन त्सांग (या Xuanzang) के कार्यों में उल्लिखित है, जो हर्षवर्धन के शासनकाल के दौरान 629-645 ईस्वी में भारत आया था. साथ ही, समुंद्र मंथन के बारे में भागवत पुराण, विष्णु पुराण, महाभारत और रामायण में भी उल्लेख किया गया है.

महाकुंभ का आयोजन हर साल नहीं बल्की 12 साल में एक बार होता है. 12 सालों में कुंभ मेले का आयोजन देश में चार जगहों पर किया जाता है. जिसमें हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक और उज्जैन शामिल है. इनमें से नासिक और उज्जैन में हर साल कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है. पिछली बार प्रयागराज में Mahakumbh Mela का आयोजन साल 2013 में किया गया था, जिसके बाद अब साल 2025 में Mahakumbh Mela का आयोजन किया जाएगा.

बहुत समय पहले, जब असुरों ने देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया, तो देवता घोर संकट में पड़ गए। उनकी शक्ति क्षीण हो चुकी थी, और स्वर्ग पर उनका अधिकार समाप्त हो गया था। निराश और दुखी होकर, इंद्र देव और अन्य देवता भगवान विष्णु के पास सहायता मांगने गए।

भगवान विष्णु ने गंभीरता से सबकी बात सुनी और कहा, “देवताओं की शक्ति और असुरों का अभिमान तभी समाप्त हो सकता है जब तुम सब मिलकर अमृत प्राप्त करो। अमृत पीने से अमरता प्राप्त होगी, लेकिन इसके लिए क्षीरसागर का मंथन करना होगा।”

देवताओं को समझ आ गया कि अमृत प्राप्ति आसान नहीं होगी। विष्णु ने उन्हें असुरों को भी इस कार्य में शामिल करने की सलाह दी, क्योंकि समुद्र मंथन जैसे कठिन कार्य में अकेले देवताओं का प्रयास पर्याप्त नहीं होता।

मंथन के लिए एक मथनी और रस्सी की आवश्यकता थी। मंदराचल पर्वत को मथनी और नागराज वासुकी को रस्सी बनाया गया। लेकिन एक समस्या थी—मंदराचल पर्वत को स्थिर कौन रखेगा? भगवान विष्णु ने इस समस्या का समाधान भी सुझाया। उन्होंने कछुए का रूप धारण कर पर्वत को अपने पीठ पर रखा।

देवता और असुर दोनों अपनी-अपनी जगहों पर खड़े हो गए। देवताओं ने वासुकी का पूंछ वाला हिस्सा पकड़ा और असुरों ने उसका मुख वाला हिस्सा। मंथन शुरू हुआ।

मंथन से निकले अद्भुत रत्न

मंथन के साथ-साथ समुद्र से अनेक अद्भुत वस्तुएं निकलने लगीं:

  1. कामधेनु – इच्छाओं को पूरा करने वाली गाय।
  2. कल्पवृक्ष – मनोकामनाएं पूरी करने वाला वृक्ष।
  3. लक्ष्मी – धन और समृद्धि की देवी, जिन्होंने विष्णु को वर लिया।
  4. चंद्रमा – जिसे शिवजी ने अपने मस्तक पर धारण किया।

लेकिन तभी कुछ ऐसा निकला जिसने सभी को डरा दिया—हलाहल विष।

हलाहल इतना विषैला था कि उसके प्रभाव से सृष्टि नष्ट हो सकती थी। सभी देवता शिवजी के पास सहायता मांगने गए। शिवजी ने बिना समय गंवाए विष को पी लिया, लेकिन उसे गले में ही रोक लिया। इस कारण उनका गला नीला हो गया और वे “नीलकंठ” कहलाए।

आखिरकार, मंथन के अंतिम चरण में अमृत कलश प्रकट हुआ। इसे देखते ही असुरों की आँखों में लालच चमकने लगा। उन्होंने अमृत पर कब्जा करने की कोशिश की। तभी भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण किया और अपनी बुद्धिमत्ता से अमृत को देवताओं में बांट दिया।

अमृत वितरण के दौरान चार स्थानों—प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन, और नासिक—पर अमृत की कुछ बूँदें गिर गईं। यही स्थान आज पवित्र तीर्थस्थल माने जाते हैं।

कहते हैं, इन स्थानों पर अमृत की ऊर्जा आज भी मौजूद है। इसलिए हर 12 वर्षों में इन स्थानों पर Mahakumbh Mela का आयोजन होता है। यह मेला आत्मा की शुद्धि और मोक्ष प्राप्ति का सबसे बड़ा अवसर माना जाता है।

समुद्र मंथन की यह कहानी हमें सिखाती है कि कठिन परिश्रम, धैर्य, और सहयोग से जीवन के सबसे बड़े लक्ष्यों को भी प्राप्त किया जा सकता है।

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